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7 soldiers martyred in Naxalite attack were sons of poor tribal families: Naxalites are becoming thirsty for the blood of tribals at the behest of outsiders.
रायपुर। आदिवासियों के हमदर्द होने का दंभ भरने वाले नक्सलियों का असली चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है। पहले केन्द्रीय अर्ध सैनिक बलों को आदिवासियों का दुश्मन बताकर आदिवासियों से खिलाफत करवाने वाले नक्सली अब आदिवासियों के ही खून के प्यासे हो चुके हैं। डीआरजी के जवान जो नियमित एरिया डोमेनेशन से लौट रहे थे उन्हें निशाना बनाते हुए नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट किया जिसमें 8 जवान और 1 ड्राइवर की मौत हो गयी।
शहीद हुए डीआरजी के 8 जवानों में से 7 जवान बस्तर के गांवों के गरीब आदिवासी परिवारों के बेटे थे। जो आदिवासियों की सुरक्षा के लिए और अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पुलिस में भर्ती हुए थे। नक्सलियों का इंटेलीजेन्स इतना मजबूत है कि उन्हें इस बात की पूरी जानकारी थी कि जिन जवानों को निशाना बना रहे हैं वे सभी आदिवासी हैं। इनमें से कई तो अपने परिवारों के अकेले कमाने वाले थे। अब इनके अनाथ हुए परिवारों के सामने जीवनभर की पीड़ा पैदा हो गयी है।
सूत्रों के अनुसार शहीद प्रधान आरक्षक बुधराम वर्ष 2016 में पुलिस में भर्ती हुआ था। अपने परिवार का अकेले कमाने वाले बुधराम के परिवार में उसकी पत्नी और बच्चों के अलावा उसके दो भाई भी हैं जिनकी जिम्मेदारी भी बुधराम के कंधों पर थी। शहीद बामन के घर में उसकी पत्नी और बुजुर्ग मां हैं । मात्र 29 साल के बामन के परिवार को बर्बाद करते समय नक्सलियों के हाथ तक नहीं कांपे। कुछ इसी तरह की कहानी सभी शहीदों के परिवारों की है। बीजापुर के ब्लास्ट के एक दिन पहले हुई घटना में शहीद भी एक गरीब परिवार का आदिवासी बेटा था।
ये वही नक्सली हैं जो मिजो और नागा बटालियन के खौफ से आदिवासी होने की दुहाई देते हुए कहते थे कि इन बटालियन के जवानों को नक्सलियों को नहीं मारना चाहिए क्योंकि जवान औऱ नक्सली दोनों ही आदिवासी हैं। और बीजापुर की घटना में निर्दोष जवानों को मारते समय नक्सलियों को एक बार भी नहीं लगा कि ये भी गरीब आदिवासी हैं। इस घटना ने नक्सलियों की कथनी और करनी का अंतर साफ दिखा दिया है।
नक्सलवाद शुरु से ही आदिवासियों को भरमाता रहा है। जब-जब भोले-भाले आदिवासियों ने नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा लिया है तो बदले में उन्हें मौत ही मिली है। चाहे सलवा-जुडूम कैम्पों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष आदिवासियों की हत्या का मामला हो या फिर आत्म-समर्पण कर चुके आदिवासियों को मौत के घाट उतारने का मामला हो। हर मामले में नक्सलवाद ने अपना क्रूर और निर्मम चेहरा ही दिखाया है। जब से आदिवासियों की पुलिस और सुरक्षा बलों में भर्ती शुरु हुई है तब से नक्सली बौखलाये बैठे हैं। कभी फोर्सेस में काम कर रहे आदिवासियों के परिवारों के साथ मारपीट या अपहरण करते हैं तो कभी हत्यायें।
नक्सलवादों के राजधानी से लेकर दिल्ली तक में सहानुभूति रखने वाले पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन लगातार नक्सलियों के पक्ष में दिखाई देते हैं। ऐसे ही लोगों ने पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर एसपीओ की नियुक्ति को रद्द करवाया था औऱ अब ये लोग डीआरजी में जवानों की नियुक्ति को रद्द करवाने के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुके हैं।
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