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Delhi High Court's big decision: Law students cannot be barred from appearing in exams due to minimum attendance
HIGH COURT: दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा है कि किसी भी विधि (कानून) के छात्र को केवल कम उपस्थिति (low attendance) के कारण परीक्षा में बैठने से नहीं रोका जा सकता। अदालत ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) को निर्देश दिया है कि वह अपने अनिवार्य उपस्थिति संबंधी नियमों में संशोधन करे ताकि छात्रों पर अनावश्यक मानसिक दबाव न पड़े।
यह फैसला न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह और न्यायमूर्ति अमित शर्मा की खंडपीठ ने सुनाया। अदालत ने कहा कि शिक्षा प्रणाली को इतना कठोर नहीं बनाया जा सकता कि छात्र मानसिक रूप से टूट जाएं या अत्यधिक तनाव का शिकार हों। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी छात्र की उपस्थिति कम है, तो उसे परीक्षा से वंचित करने या अगली सेमेस्टर में प्रमोशन रोकने का अधिकार किसी संस्थान को नहीं है।
यह मामला एमिटी यूनिवर्सिटी के छात्र सुशांत रोहिल्ला की दुखद आत्महत्या से जुड़ा है। वर्ष 2016 में सुशांत तृतीय वर्ष के विधि छात्र थे। कॉलेज ने उनकी उपस्थिति कम होने के कारण उन्हें सेमेस्टर परीक्षा में बैठने से रोक दिया था। इसके कुछ दिनों बाद उन्होंने अपने घर पर आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि वह असफल महसूस कर रहे हैं और अब आगे जीना नहीं चाहते।
इस घटना के बाद सितंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं संज्ञान (suo motu) लेते हुए मामला शुरू किया था। बाद में मार्च 2017 में यह मामला दिल्ली हाई कोर्ट को भेज दिया गया। अब लगभग आठ साल बाद इस मामले का निपटारा करते हुए हाई कोर्ट ने देशभर के विधि छात्रों के लिए यह बड़ा निर्णय दिया है।
अदालत ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया को आदेश दिया है कि वह विधि शिक्षा में उपस्थिति के नियमों की समीक्षा करे और ऐसे दिशा-निर्देश बनाए, जिनसे छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा की गुणवत्ता दोनों का संतुलन बना रहे। अदालत ने कहा कि कॉलेजों को चाहिए कि वे छात्रों को उनकी उपस्थिति की जानकारी नियमित रूप से दें, ताकि किसी भी छात्र को अचानक परीक्षा से रोके जाने जैसी स्थिति का सामना न करना पड़े।
कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया कि यदि किसी छात्र की उपस्थिति कम है, तो कॉलेज उसे अतिरिक्त क्लास, लॉ क्लीनिक, मूट कोर्ट या अन्य शैक्षणिक गतिविधियों के ज़रिए अपनी कमी पूरी करने का अवसर दें।
यह फैसला विधि शिक्षा और छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। अदालत ने स्पष्ट कहा कि शिक्षा का उद्देश्य केवल अनुशासन लागू करना नहीं बल्कि छात्रों को सक्षम, संवेदनशील और आत्मविश्वासी बनाना होना चाहिए। न्यूनतम उपस्थिति का नियम छात्रों के भविष्य को प्रभावित करने का माध्यम नहीं बनना चाहिए।
यह निर्णय न केवल कानून के छात्रों बल्कि अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए भी एक मिसाल साबित हो सकता है। इससे शिक्षा संस्थानों को यह संदेश गया है कि वे अनुशासन बनाए रखते हुए भी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण का ध्यान रखें।