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Heroes of the Green Revolution or victims of government neglect Rajaram Tripathi
रायपुर। समाचारों में इसी हफ्ते कर्मचारियों को आठवां वेतनमान दिए जाने की खबर पढ़ रहा था।अब इसे संयोग कहें या दुर्योग कि इस समय मेरे परिचित केवीके के एक वरिष्ठ साइंटिस्ट का फोन किसी कार्यक्रम के संदर्भ मेंआया, तो मैंने उन्हें आठवें-वेतनमान की बधाईयां दी, पर जवाब में डॉक साहब ने बड़ी ठंडी सांस लेते बुझे हुए स्वर में कहा डॉक्टर साहब आप हमें वेतन बढ़ने की बधाइयां दे रहे हैं, पर हमें तो लगता है सरकार केवीके को ही बंद करना चाहती है। मेरे जरा सा कुरेदने पर बड़े दुखी मन से हुए विस्तार से उन्होंने जो कुछ बताया वास्तव में उसे भारत की खेती के लिए कतई अच्छा नहीं कहा जा सकता।
अब इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि,कभी हरित क्रांति का झंडा लेकर भारत की कृषि को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का सपना दिखाने वाले कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) आज खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हालात यह हो गए हैं कि अगर ऐसे ही चलता रहा, तो ये संस्थान जल्द ही बंद होने की कगार पर पहुंच जाएंगे।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का हालिया फरमान मानो उन कर्मियों पर एक गाज बनकर गिरा है, जो देश के किसानों की समस्याओं का समाधान ढूंढने में दिन-रात जुटे रहते हैं। कभी वे किसानों को फसलों की नई तकनीक समझा रहे होते हैं, तो कभी उनके खेतों में कीट नियंत्रण के उपायों पर शोध कर रहे होते हैं। लेकिन उनकी अपनी हालत ऐसी हो गई है कि न वेतन समय पर मिल रहा है, न ही अन्य बुनियादी सुविधाएं।
विडंबना यह है कि इसी हफ्ते केंद्र सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के लिए आठवें वेतनमान आयोग के गठन का तोहफा दिया है, जबकि केवीके के वैज्ञानिकों और कर्मचारियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है, मानो वे किसी दुश्मन देश के नागरिक हों। यह विरोधाभास न केवल सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाता है, बल्कि इस बात को भी उजागर करता है कि कृषि क्षेत्र और इससे जुड़े लोगों के प्रति उदासीनता कितनी गहरी हो चुकी है।
अधिकतर केवीके कर्मियों के वेतन महीनों से रुके हुए हैं। वैज्ञानिकों और कर्मचारियों को इस हाल में छोड़ दिया गया है कि वे अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल अमानवीय है, बल्कि कृषि क्षेत्र के प्रति सरकार की उदासीनता को भी उजागर करती है।
‘कोढ़ में खाज’ तो यह है कि उनकी सेवानिवृत्ति आयु भी घटाकर 60 वर्ष कर दी गई है, जबकि यह वरिष्ठ वैज्ञानिक कम से कम 10 साल और देश की सेवा करने में सक्षम हैं। यह समझ से परे हैं कि जब 75- 80 साल के व्यक्ति मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठकर प्रदेश और देश की सारी जिम्मेदारियां भली-भांति निभा रहे हैं तो केवीके के वैज्ञानिकों को 60 साल में कौन सा कीड़ा लग जाता है, सरकार डस्टबिन में फेंकना चाहती है।यह पक्षपात किस हद तक असहनीय है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां आईसीएआर के अधीन सीधे कार्यरत कर्मचारियों को तो तमाम सुविधाएं मिल रही हैं, वहीं राज्य सरकारों या कृषि विश्वविद्यालयों के अधीन केवीके के कर्मी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं।
केवीके कर्मियों को न तो रहने के लिए ढंग की व्यवस्था दी जाती है, न ही कार्यालयों में पर्याप्त संसाधन। प्रयोगशालाओं की स्थिति तो ऐसी है कि वहां उपकरण कम, कबाड़ ज्यादा नजर आता है। इन परिस्थितियों में वैज्ञानिक क्या शोध करेंगे और किसे प्रेरित करेंगे?
वैज्ञानिक दिनभर किसानों को उन्नत खेती सिखाने के नाम पर भटकते हैं और रात में खुद इस चिंता में सो नहीं पाते कि अगले महीने परिवार का खर्च कैसे चलेगा। कोई सरकारी अधिकारी पूछे तो हर वैज्ञानिक की पीड़ा यही होती है. “हम किसानों को प्रेरित करें, लेकिन हमें कौन प्रेरित करेगा?”
आईसीएआर ने अपने बजट को लेकर ऐसा खेल खेला है, मानो ये केवीके वैज्ञानिक और कर्मी किसी अलग ग्रह के प्राणी हों। पहले वेतन के साथ मिलने वाले भत्तों में कटौती की गई। फिर मेडिकल भत्ता, ग्रेच्युटी, और नेशनल पेंशन योजना (एनपीएस) जैसे लाभ बंद कर दिए। अब तो स्थिति यह है कि कई महीनों तक वेतन भी नहीं मिलता। आखिर ऐसे में कोई वैज्ञानिक कैसे शोध करेगा और कैसे अपने परिवार को पाल पाएगा?
भारत, जो 1.5 अरब की आबादी को खिला रहा है, वह पूरी दुनिया को कृषि निर्यात के जरिए मुद्रा भी दिला रहा है। लेकिन इस देश में कृषि को मजबूत बनाने वाली सबसे बड़ी संस्था, केवीके, खुद इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसका अस्तित्व संकट में है। यह विडंबना है कि जब पूरी दुनिया में भारतीय कृषि मॉडल की सराहना हो रही है, तब हमारे अपने वैज्ञानिक मानसिक तनाव में डूबे हुए हैं।
अगर यही स्थिति बनी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत की खेती वैश्विक मंच पर हास्य का पात्र बन जाएगी। आखिर जो संस्थान किसानों को नई तकनीक सिखाने के लिए बनाए गए थे, वे खुद किसानों की समस्याओं का हल नहीं खोज पाएंगे।
किसान सरकार की नीतियों से पहले ही त्रस्त और पस्त हैं ,और आंदोलन रत हैं। अगर सरकार ने जल्द ही कृषि विज्ञान केंद्रों की समस्याओं का समाधान नहीं किया, तो इसका असर सीधे किसानों और कृषि उत्पादन पर पड़ेगा। यह याद रखना जरूरी है कि कृषि विज्ञान केंद्रों की गिरती स्थिति केवल किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खतरा है।
“अगर सरकार ने केवीके कर्मियों को उनका हक नहीं दिया, तो वह दिन दूर नहीं जब हमें अपनी कृषि व्यवस्था को बचाने के लिए विदेशों से मदद मांगनी पड़ेगी।”
क्या यह विडंबना नहीं है कि किसानों को आधुनिक खेती सिखाने वाले वैज्ञानिकों के पास खुद इतनी जगह नहीं है कि वे ढंग से बैठकर अपने शोध पर काम कर सकें? क्या यह मजाक नहीं है कि जिन कर्मियों को हरित क्रांति का आधार माना गया, वे अब खुद अपनी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं?
आखिर कब तक भारत सरकार और आईसीएआर इस सच्चाई से आंखें मूंदे रहेंगी? क्या उन्हें यह समझ में नहीं आता कि यदि केवीके बंद हो गए, तो भारत की कृषि भी उस कुएं में गिर जाएगी, जहां से निकलना असंभव हो जाएगा।
कृषि विज्ञान केंद्रों की उपयोगिता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। लेकिन वर्तमान में जिस तरह से इन्हें कमजोर किया जा रहा है, वह देश की कृषि को भी कमजोर कर देगा। सरकार को चाहिए कि वह इन कर्मियों की समस्याओं का जल्द से जल्द समाधान करे, अन्यथा कृषि विज्ञान केंद्रों के बंद होने के साथ ही भारत की कृषि व्यवस्था भी ढह जाएगी।
“जागिए, वरना वह दिन दूर नहीं जब हम अपने बच्चों को सिर्फ किताबों में बताएंगे कि कभी इस देश में कृषि विज्ञान केंद्र हुआ करते थे।”