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How do people become Naga Sadhus and what is their tradition, know the whole story
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इस बार महाकुंभ का आयोजन हो रहा है, जिसमें 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आने की संभावना है। कुंभ के इस महासंयोग में नागा साधुओं का विशेष स्थान है, जो हमेशा से कुंभ के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। वे अपनी कठोर तपस्या, त्याग और अद्भुत साधना के लिए जाने जाते हैं। इन साधुओं की दीक्षा, जीवन शैली और परंपराएं न केवल रहस्यपूर्ण हैं, बल्कि भारतीय धार्मिक संस्कृति की गहरी समझ और अनुशासन को भी दर्शाती हैं।
प्रयागराज के कुम्भ मेला क्षेत्र में शनिवार को एक ऐतिहासिक घटना घटित हुई, जब 20 से 65 वर्ष के बीच के युवाओं और बुजुर्गों को नागा दीक्षा दी गई। इन साधुओं ने छह वर्षों तक कठिन तप और अध्ययन किया था, और कुम्भ के दौरान उनका दीक्षाभाव पूरा हुआ। इस कठिन यात्रा का अंतिम चरण था 24 घंटे का निर्जला व्रत, जिसमें साधु रातभर अखाड़े में धर्म ध्वज के नीचे खड़े होकर शिव जप करते रहे।
दीक्षा प्रक्रिया के दौरान अखाड़े के थानापति और कोतवाल की निगरानी में सभी साधु गंगा तट पहुंचे। यहां उन्होंने मुंडन करवाने के बाद गंगा में 108 डुबकियां लगाईं और खुद का पिंडदान किया। इस संस्कार के साथ ही उन्हें नागा साधु की उपाधि मिल गई। अब ये साधु पूरी तरह से अपनी दीक्षा और जीवन शैली को स्वीकार कर, सनातन धर्म के रक्षकों के रूप में पहचाने जाएंगे।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया
नागा साधु बनने के लिए एक व्यक्ति को लंबी और कठिन साधना से गुजरना पड़ता है। इस प्रक्रिया में खुद को पूरी तरह से त्यागने की आवश्यकता होती है, जिसमें परिवार, रिश्ते और सांसारिक सुखों को छोड़ना होता है। साधु के जीवन की शुरुआत तपस्या और ब्रह्मचर्य से होती है, जिसमें उन्हें अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखना होता है। नागा साधु बनने के बाद वे निर्वस्त्र रहते हैं, शरीर पर राख मलते हैं और गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं।
धर्म की रक्षा
नागा साधु केवल साधना में लीन नहीं रहते, बल्कि धर्म की रक्षा में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। ऐतिहासिक रूप से, नागा साधु ने धर्म और सनातन परंपराओं की रक्षा के लिए कई युद्धों में भाग लिया है। 18वीं शताब्दी में जब अहमद शाह अब्दाली ने भारत में आक्रमण किया, तब नागा साधुओं ने धर्म की रक्षा के लिए मोर्चा खोला और कई अन्य संघर्षों में भी उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाई। ये साधु कभी भी अपनी पवित्रता को बनाए रखते हुए, धर्म की रक्षा के लिए हथियार उठाने से पीछे नहीं हटे।
कुंभ में नागा साधुओं का विशेष स्थान
कुंभ के दौरान नागा साधुओं का स्नान सबसे पहले होता है, जिसे "अमृत स्नान" कहा जाता है। इस स्नान के बाद ही अन्य साधु और श्रद्धालु पवित्र नदियों में स्नान करते हैं। कुंभ के आयोजन के दौरान, साधु अपने तप और साधना का एक प्रदर्शन करते हैं, जिससे उनके जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों को समझने का मौका मिलता है। कुंभ के समापन के बाद, ये साधु पवित्र मिट्टी को अपने शरीर पर लपेटकर वापस अपने आश्रम या एकांतवास में लौट जाते हैं।
नागा साधु का जीवन और दीक्षा
नागा साधु बनने के लिए व्यक्ति को कई कठिन प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है 'लिंग तोड़ प्रक्रिया', जिसमें साधु अपनी इच्छाओं और इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण पाने के लिए अपने शरीर की कुछ विशेषताएँ छोड़ देते हैं। यह एक गुप्त प्रक्रिया है और इसके बारे में बहुत कम जानकारी सार्वजनिक होती है। नागा साधु मणिराज पुरी ने बताया कि उन्होंने 13 साल की उम्र में घर छोड़कर साधु जीवन की शुरुआत की और अपने शरीर का अंतिम संस्कार करने के बाद नागा दीक्षा ली।
नागा साधु कुंभ के पर्व में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनका जीवन तपस्या, त्याग और समर्पण का प्रतीक है। उनके कड़े अनुशासन और अद्भुत साधना के कारण वे न केवल धार्मिक समुदाय में सम्मानित होते हैं, बल्कि समाज में उनके योगदान को भी सराहा जाता है। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अगर व्यक्ति अपने जीवन के उद्देश्य को पाने के लिए सच्ची तपस्या और समर्पण से कार्य करता है, तो वह किसी भी कठिनाई से पार पा सकता है।