Naxalites are in a bad condition due to Operation Kagar, they appealed to the government for peace
रायपुर। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मार्च 2026 को भारत को नक्सलमुक्त करने की मुहिम अपने शबाब पर पहुंच चुकी है। केन्द्र और छत्तीसगढ़ सरकार के नक्सल मुक्त भारत बनाने के लिए चलाए जा रहे ऑपरेशन कगार के कारण नक्सलियों की कमर पूरी तरह से टूट गयी है। नक्सलियों की सेन्ट्रल कमेटी के प्रवक्ता ने तेलुगु में बयान जारी कर शांति-वार्ता की अपील की है।
दरअसल डेढ़ साल पहले छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने ,मध्यप्रदेश में दोबारा सत्ता में औऱ उसके बाद ओडिशा और महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने से नक्सली चारों तरफ से घिर चुके हैं। राज्य का उत्तरी हिस्सा पहले से ही नक्सल-मुक्त हो चुका है। वहीं केवल तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार है जबकि आंध्रप्रदेश में एनडीए की सरकार है। ये सब वे राज्य हैं जहां नक्सली एक राज्य में दबाब बनने पर दूसरे राज्य में शिफ्ट हो जाते थे। नक्सलियों ने महाराष्ट्र में शिवसेना (यूबीटी)-कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) की सरकार और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार के समय नया एमएमसी जोन (महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ ) बना लिया था। वहीं ओडिशा में नवीन पटनायक की सरकार के समय छत्तीसगढ़ को मिलाकर भी नया जोन खड़ा कर लिया था। भूपेश बघेल की सरकार के समय नक्सलियों पर ना के बराबर अटैक हुए थे जिससे नक्सलियों को फिर से पांव फैलाने में मदद मिली। डॉ रमन सिंह के कार्यकाल के अंतिम दौर में नक्सलवाद को बहुत हद तक कुचला जा चुका था लेकिन कांग्रेस सरकार बनने से नक्सलवाद के खिलाफ धार भोथरी हो गयी थी। इसके साथ ही पड़ोसी राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें होने का फायदा नक्सलियों को मिलने लगा था। हालांकि तेलगांना का रुख शुरु के नक्सलवाद के खिलाफ कड़ा रहा। अविभाजित आंध्रप्रदेश के दौर में ग्रे हाउण्ड के कारण बड़ी संख्या में नक्सली मारे गए औऱ आंध्र की सरेण्डर नीति के कारण बड़ी संख्या में नक्सली कैडर ने आत्म-समर्पण किया। लेकिन पिछले डेढ़ सालों में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र में भाजपा की सरकारें होने के कारण धमतरी से लगे ओडिशा के हिस्से , महाराष्ट्र ,तेलगांना और ओडिशा से लगे हिस्सों में लगातार ऑपरेशन्स के कारण बड़ी संख्या में नक्सली मारे गये या सरेण्डर किए। ड्रोन आधारित ऑपरेशन्स और ग्राउण्ड पर नये-नये कैम्प खुलने, सड़कें बनने सहित आवागमन की सुविधाओं में वृद्धि और रोजगार के साधनों के साथ ही चिकित्सा, शिक्षा, आंगनबाड़ी, बैंकिंग की सुविधाओं में इजाफा होने से सुदूर वनांचलों में रहने वाले आदिवासियों ने नक्सलियों से दूरी बनाना शुरु कर दिया । साथ ही नक्सलियों को नई भर्तियों के लिए भी लोग मिलना बंद हो गए थे। बस्तर में पहले आईजी टी जे लांगकुमेर ,उसके बाद एस आर पी कल्लुरी और फिर सुंदरराज पी के लम्बे और अनुभवी कार्यकालों ने नक्सलवाद के सफाए में अहम भूमिका निभायी है।
नक्सलियों की सेन्ट्रल कमेटी के प्रवक्ता अभय का तेलुगु में जारी बयान भी इस बात का संकेत है कि विगत 30 मार्च को मारी गयी 45 लाख रुपये की ईनामी महिला नक्सली गुम्माडिवेली रेणुका उर्फ चैते उर्फ भानु जो कि सेन्ट्रल रीजनल ब्यूरो (सीआरबी) प्रेस टीम की इंचार्ज थी , साथ ही दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी की प्रभात पत्रिका की सम्पादक थी। उसके मुठभेड़ में मारे जाने के बाद नक्सलियों के पास हिन्दी में प्रेस नोट लिखने वाले तक नहीं बचे हैं। अमूमन नक्सलियों के प्रेस नोट हिन्दी में ही आते रहे हैं।
अब सेन्ट्रल कमेटी के प्रवक्ता के बयान पर आते हैं। पहली बार नक्सलियों के बयान में डर दिखाई दे रहा है और साथ ही मानवाधिकारों की बातें करते हुए पत्रकारों , बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों औऱ आम जनता से सरकार के ऑपरेशन प्रहार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने का आह्वान कर रहे हैं। नक्सली प्रवक्ता का दोगलापन उसके प्रेस नोट में साफ झलक रहा है जिसमें एक ओर वो तत्काल शांति बहाल करने की बात कहते हुए शांति-वार्ता के लिए 8 शर्ते लगा रहा है तो दूसरी ओर फोर्सेस और सरकार पर तमाम तोहमतें मढ़ते हुए कह रहा है कि फोर्सेस ने 400 से ज्यादा नक्सलियों का सफाया कर दिया है। नक्सल-प्रभावित क्षेत्र जिसे वो आदिवासी-बहुत इलाका बताते हुए फोर्सेस को हटाने की मांग कर रहा है। साथ ही नागरिक क्षेत्रों में सेना के प्रयोग को गलत बता रहा है जबकि अब तक किसी भी सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ सेना का प्रयोग नहीं किया है।
सीपीआई माओवादी के प्रवक्ता ने अपनी 8 सूत्रीय शर्तों के साथ शांति-वार्ता की मांग कर रहा है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि सुरक्षा बलों के जवानों की आईईडी ब्लास्ट, एम्बुश और घेरकर निर्मम हत्या करने के बाद अब नक्सलियों को मानवाधिकारों की याद क्यों आ रही है। दिल्ली में राज्य और केन्द्र में भाजपा की सरकारें बनने के बाद भी नक्सलियों के फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन के रुप में जेएनयू के उनके हिमायती क्या सेन्ट्रल कमेटी के आह्वान पर फिर से ड्रामा कर माहौल बनायेंगें ? जो भी हो केन्द्र औऱ राज्य सरकारों को मिलाकर 52 साल पुरानी इस समस्या को डेड लाइन के पहले पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए।
अन्य समाचार
Copyright © 2025 rights reserved by Inkquest Media