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An investigation of Indian cinema under the guise of 'Homebound' - Subhash Mishra
रायपुर। भारतीय सिनेमा आज दुनिया का सबसे बड़ा सिनेमा उद्योग है। संख्या के लिहाज़ से हम हॉलीवुड से कहीं आगे हैं। हर साल हज़ारों फिल्में, दर्जनों भाषाओं में, देश के हर कोने से निकलती हैं। सौ साल से ज़्यादा की इस यात्रा में दादा साहब फाल्के को याद किया गया, शताब्दी समारोह मनाए गए और बार-बार यह दावा दोहराया गया कि भारतीय सिनेमा वैश्विक ताकत बन चुका है। लेकिन इस आत्मसंतोष के बीच एक बुनियादी सवाल अब भी हमारे सामने खड़ा है, इतनी विशालता के बावजूद भारतीय सिनेमा दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित मंचों पर स्थायी और निर्णायक उपस्थिति क्यों नहीं बना पाया?
इसी संदर्भ में नीरज घायवान की फिल्म ‘होमबाउंड’ का ऑस्कर 2026 की बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी की टॉप-15 शॉर्टलिस्ट में पहुंचना एक अहम खबर है। यह उपलब्धि खुशी की है, लेकिन उससे भी ज़्यादा यह एक अवसर है भारतीय सिनेमा की दिशा, उसकी प्राथमिकताओं और उसके अंतर्विरोधों को समझने का। सवाल सिर्फ यह नहीं कि ‘होमबाउंड' ऑस्कर की दौड़ में क्यों पहुंची, बल्कि यह है कि ऐसी फिल्में अपवाद क्यों बन जाती हैं।
अगर भारतीय सिनेमा के इतिहास को देखा जाए तो यह साफ़ होता है कि दुनिया में भारत की छवि जिन फिल्मों ने बनाई, वे कभी मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्में नहीं थीं। सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली जब 1955 में कान फिल्म फेस्टिवल पहुंची तो उसने पहली बार भारत को एक ऐसे देश के रूप में प्रस्तुत किया जो अपने गांव, गरीबी और मानवीय संघर्ष को बिना सजावट दिखाने का साहस रखता है। अपराजिता और अपुर संसार ने वेनिस और बर्लिन में यह भरोसा मजबूत किया। ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा ने विभाजन और विस्थापन को विश्व सिनेमा की स्थायी स्मृति में दर्ज किया।
इसके बाद श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन, अरविंदन, मणि कौल और कुमार शाहनी जैसे फिल्मकारों ने भारतीय सिनेमा को विचार, प्रतिरोध और सामाजिक विवेक की भाषा दी। मीरा नायर की सलाम बॉम्बे! और मॉनसून वेडिंग, दीपिका मेहता की फायर और वॉटर, चैतन्य ताम्हणे की कोर्ट और द डिसिपल, मसान और न्यूटन इन फिल्मों ने अलग-अलग समय पर यह साबित किया कि भारतीय समाज की जटिलताओं को ईमानदारी से दिखाने वाला सिनेमा आज भी संभव है। यही वे फिल्में थीं जिनसे दुनिया ने भारत को गंभीरता से देखा।
इसके बावजूद भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा धीरे-धीरे ऐसे व्यावसायिक मॉडल में फंसती चली गई, जहां सफलता का पैमाना सवाल नहीं, बल्कि सुविधा बन गया। बड़े सितारे, बड़े बजट, आक्रामक प्रचार और उसके साथ एक सुरक्षित नैरेटिव, जो सत्ता को असहज न करे। गंभीर सिनेमा या तो न चलने वाला घोषित कर दिया गया या फिर उसे कला-घर के सीमित दायरे में बंद कर दिया गया।
यहीं से भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा अंतर्विरोध पैदा होता है। एक ओर हम ऑस्कर, कान और बर्लिन में जगह बनाने का सपना देखते हैं, दूसरी ओर अपने ही देश में फिल्मों को देखने से डरते हैं। केरल में चल रहे 30वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हालिया घटनाक्रम इस डर का सबसे स्पष्ट उदाहरण है। विष्णु नागर की फेसबुक पोस्ट ने जिस तरह इस पूरे मामले को सामने रखा, वह किसी एक राज्य या एक फेस्टिवल का सवाल नहीं, बल्कि पूरे सांस्कृतिक माहौल का आईना है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा पहले 19 फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगाई जाती है। विरोध होता है तो पांच फिल्मों को दिखाने की अनुमति दी जाती है, लेकिन 14 फिल्मों पर रोक बरकरार रहती है। केरल सरकार अंतत: यह घोषणा करती है कि सभी फिल्में दिखाई जाएंगी। सवाल यह नहीं है कि कानूनी प्रक्रिया क्या कहती है, सवाल यह है कि कला से यह डर क्यों?
सबसे विडंबनापूर्ण तथ्य यह है कि सौ साल पुरानी मूक क्लासिक फिल्म ‘बैटलशिप पोटेमकिन जो यूट्यूब पर वर्षों से उपलब्ध है और विश्व सिनेमा की आधारशिला मानी जाती है। उसे भी दिखाने की अनुमति नहीं दी जाती। फिलीस्तीन पर बनी दो फिल्मों को रोका जाता है। ‘संतोष जैसी भारतीय फिल्म, जो पुलिस की बर्बरता दिखाती है, उसे आपत्तिजनक ठहराया जाता है। जैसे उसे न दिखाने से सच्चाई मिट जाएगी।
यह वही समय है जब प्रोपेगेंडा आधारित फिल्मों को खुला समर्थन, मंच और प्रचार मिलता है। ओटीटी प्लेटफॉम्र्स पर अंधविश्वास, हिंसा और नफरत से भरा कंटेंट बिना किसी रोक-टोक के परोसा जाता है। नाग-नागिन, चमत्कार,धार्मिक उन्माद क्योंकि वह दर्शक को सोचने पर मजबूर नहीं करता। लेकिन जो फिल्में सवाल पूछती हैं, प्रतिरोध दर्ज करती हैं, उन्हें खतरा मान लिया जाता है।
ऐसे माहौल में यह उम्मीद करना कि भारत लगातार ऑस्कर या कान में पहुंचेगा, आत्मविरोध से भरा हुआ है। ईरान, रोमानिया या लैटिन अमेरिका के छोटे देशों की फिल्में इसलिए आगे आती हैं, क्योंकि वहां राज्य आलोचना से डरता नहीं। वहां सिनेमा को राष्ट्र की छवि बिगाडऩे वाला नहीं, बल्कि उसे समझने का माध्यम माना जाता है। ‘होमबाउंडÓ का ऑस्कर शॉर्टलिस्ट में पहुंचना इसलिए महत्वपूर्ण है। यह याद दिलाता है कि जब भारतीय सिनेमा अपने समाज की बेचैनी, विस्थापन और यथार्थ को ईमानदारी से पकड़ता है तो दुनिया उसकी ओर देखती है। लेकिन अगर हम एक ओर अंतरराष्ट्रीय सम्मान चाहते हैं और दूसरी ओर अपने ही देश में फिल्मों पर पहरेदारी जारी रखते हैं तो यह विरोधाभास हमें बार-बार वहीं लाकर खड़ा करेगा जहां उपलब्धि खबर बनती है, पर परंपरा नहीं।
भारतीय सिनेमा का भविष्य इस सवाल पर टिका है कि क्या हम ऐसे सिनेमा को बनने देना चाहते हैं जो हमें असहज करता है। क्योंकि इतिहास यही बताता है कि दुनिया में वही सिनेमा टिकता है, जो सत्ता से नहीं, समाज से संवाद करता है और ‘होमबाउंड' के बहाने आज यही सवाल सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो गया है।